Tumhari Ankho ka Bachpan Kavita - Jaishankar Prasad II अब जागो जीवन के प्रभात- जयशंकर प्रसाद

Tumhari Ankho ka Bachpan Kavita - Jaishankar Prasad II अब जागो जीवन के प्रभात- जयशंकर प्रसाद

तुम्हारी आँखों का बचपन- जयशंकर प्रसाद

तुम्हारी आँखों का बचपन !
 खेलता था जब अल्हड़ खेल,
 अजिर के उर में भरा कुलेल,
 हारता था हँस-हँस कर मन,
 आह रे वह व्यतीत जीवन !
तुम्हारी आँखों का बचपन !
 साथ ले सहचर सरस वसन्त,
 चंक्रमण कर्ता मधुर दिगन्त ,
 गूँजता किलकारी निस्वन ,
 पुलक उठता तब मलय-पवन.
तुम्हारी आँखों का बचपन !
 स्निग्ध संकेतों में सुकुमार ,
 बिछल, चल थक जाता तब हार,
 छिडकता अपना गीलापन,
 उसी रस में तिरता जीवन.
तुम्हारी आँखों का बचपन !
 आज भी है क्या नित्य किशोर-
 उसी क्रीड़ा में भाव विभोर-
 सरलता का वह अपनापन-
 आज भी है क्या मेरा धन !
 तुम्हारी आँखों का बचपन !

Tumhari Ankho ka Bachpan Kavita - Jaishankar Prasad II अब जागो जीवन के प्रभात- जयशंकर प्रसाद

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