O Ree Manas ki Gahrai Kavita- Jaishankar Prasad II ओ री मानस की गहराई- जयशंकर प्रसाद
ओ री मानस की गहराई- जयशंकर प्रसाद
ओ री मानस की गहराइ!
तू सुप्त , शांत कितनी शीतल-
निर्वात मेघ ज्यों पूरित जल-
नव मुकुर नीलमणि फलक अमल,
ओ परदर्शिका! चिर चन्चल-
यह विश्व बना है परछाई!
तेरा विषद द्रव तरल-तरल
मूर्छित न रहे ज्यों पिए गरल
सुख लहर उठा री सरल सरल
लघु लघु सुंदर सुंदर अविरल,
तू हँस जीवन की सुघराई!
हँस ,झिलमिल हो ले तारा गन,
हँस, खिलें कुंज में सकल सुमन,
हँस , बिखरें मधु मरंद के कन,
बन कर संसृति के नव श्रम कन,
- सब कह दें `वह राका आई!`
हँस लें भय शोक प्रेम या रण,
हँस ले कला पट ओढ़ मरण,
हँस ले जीवन के लघु लघु क्षण
देकर निज चुम्बन के मधुकां,
नाविक अतीत की उतराई!
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