Aplak Jagti ho ek Raat Kavita - Jaishankar Prasad II अपलक जगती हो एक रात- जयशंकर प्रसाद


Aplak Jagti ho ek Raat Kavita - Jaishankar Prasad II अपलक जगती हो एक रात- जयशंकर प्रसाद

अपलक जगती हो एक रात- जयशंकर प्रसाद

अपलक जगती हो एक रात!
 सब सोये हों इस भूतल में,
 अपनी निरीहता संबल में,
 चलती हों कोई भी न बात!
 पथ सोये हों हरयाली में,
 हों सुमन सो रहे डाली में,
 हों अलस उनींदी नखत पाँत!
 नीरव प्रशांत का मौन बना ,
 चुपके किसलय से बिछल छना;
 थकता हों पंथी मलय- वात.
 वक्षस्थल में जो छुपे हुए-
 सोते हों ह्रदय अभाव लिए-
 उनके स्वप्नों का हों न प्रात.

Aplak Jagti ho ek Raat Kavita - Jaishankar Prasad II अपलक जगती हो एक रात- जयशंकर प्रसाद

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