Swami Vivekananda

Swami Vivekanand Biography (स्वामी विवेकानंद - जीवनी) 

नाम : नरेंद्रनाथ दत्त ( स्वामी विवेकानंद )माता : भुवनेश्वरी देवीपिता : विश्वनाथ दत्तजन्म : १२ जनुअरी १८६३जन्म स्थान : कोलकाता, भारतगुरु : रामकृष्ण परमहंसमृत्यु : ०४ जुलाई १९०२


स्वामी विवेकानन्द जी का जन्म कोलकाता में के वकील परिवार में हुआ था।  इनके पिता जी विश्वनाथ दत्त एक जाने माने वकील थे। माता भुवनेश्वरी देवी एक धार्मिक प्रवृति की महिला थी।  पूजा - पाठ में काफी अटूट विश्वास रखती थी। स्वामी विवेकानंद जी के  बचपन का नाम नरेंद्रनाथ दत्त था।  नरेंद्र पर अपनी माता जी का बहुत गहरा असर पड़ा, माता की ही तरह नरेंद्र   
का भी झुकाव पूजा पाठ में रहता था। बचपन में एक बार नरेंद्र कमरे में बैठ कर  ध्यान कर रहे थे, अचानक उनके रूम में कही से सांप घुस आया, नरेंद्र को इस बात की तनिक भी भनक नहीं,  जब उनकीं माँ ने देखा की कमरे में नरेंद्र के पास सांप है और नरेंद्र अपने ध्यान में लीन है , सारे लोग डर गए सिवाय नरेंद्र के की कही सांप काट न ले। 

नरेंद्र की शुरुआती दौर की पढ़ाई Ishwar Chandra Visyasagar Institution में हुआ। नरेंद्रनाथ को पढ़ने का बहुत शौक था। पढ़ाई में इतना ज्यादा रूचि थी की पुस्तकालय से जिस दिन किताब ले जाते थे उसके दूसरे दिन पढ़ कर वापस भी कर देते थे। और इनके इस व्यहार से पुस्तकालय इंचार्ज काफी नाराज हुए , वह बोले की जब पढ़ना नहीं होता तो किताबे ले क्यों जाते हो।  नरेंद्र बोले इस पुस्तक में से आप कोई भी सवाल पूछ सकते है, और कई सवालों के सही जवाब देने से पुस्तकालय इंचार्ज अचंभित हो गए। नरेंद्रनाथ अच्छी यादश्त शक्ति के धनि व्यक्ति थे। 

इसके बाद की पढ़ाई के लिए नरेन्द्रनाथ को Presidency College भेजा गया। यहाँ पे इन्होने  आगे की पढ़ाई पूरी की। नरेंद्र केवल पढ़ाई में ही नहीं अव्वल थे, वो खेलकूद, संगीत तथा हर क्षेत्र में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते थे। पढ़ाई में तो नरेंद्र का कोई तोड़ ही नहीं था , सारे विषयों का पूरा ज्ञान रखते थे।  धर्म शास्त्र जैसे भगवत गीता , वेद , उपनिषद, रामायण, महाभारत  और मनोविज्ञान की किताबे इनकी पसंदीदा थी। हिन्दू शास्त्र पढ़ने का बहुत रूचि रखते थे, और इन्ही सब शास्त्रों का नरेंद्र के विचारधारा पे बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा था। स्नातक की पढ़ाई पूरी होने के बाद, घरवाले चाहते थे की नरेन्द्रनाथ भी अपने पिता की तरह बने, लेकिन नरेंद्र को तो दुनिया को मार्ग दिखाना था। 

इनके दिमाग में अब एक प्रश्न हमेशा रहता था, जो की इनको बहुत परेशान किया और वो था की क्या किसी ने भगवान् को देखा है ? अपने सवाल का उत्तर जानने के लिए इन्होने ब्रह्म समाज में शामिल हुए, कई आध्यात्मिक लोगो से भी मिले लेकिन कही भी इनको संतुष्टि नहीं मिली। एक दिन कोलकाता के दक्षिणेश्वर मंदिर गए वहां पर इन्हे मिले रामकृष्ण परमहंस जो की उस मंदिर के पुजारी थे , और हमेशा की तरह उनसे भी यही सवाल किये, की क्या आपने भगवान् को देखा है ? उत्तर मिला हाँ , मैंने भगवान् को देखा है , और मैं जैसे तुम्हे देख रहा हूँ, तुमसे बातें कर रहा हूँ उसी तरह भगवान् को देखता हूँ और बातें भी करता हूँ।  पहले तो नरेंद्र को विश्वास नहीं हुआ लेकिन जब रामकृष्ण ने इनको स्पर्श किया तो लगा की पूरा ब्रह्माण्ड उनके शरीर में समा रहा हो और एक अलग सी अनुभूति होने लगी। 

इसके बाद अकसर नरेंद्रनाथ दक्षिणेश्वर मंदिर जाने लगे और अपने सारे सवालो के उत्तर उन्हें मिलने लगे। अचानक पिता की मृत्यु होने के बाद नरेंद्र टूट से गए और मंदिर में जा कर रामकृष्ण से बोले की वो मेरे लिए भगवान् से प्रार्थना करें और इस पर रामकृष्ण ने इंकार कर दिया और डाँटा भी, बोले तुम्हे अपने सारे काम खुद करने होंगे, जब वो प्रार्थना करने गए तो भगवान् से आध्यात्मिक ज्ञान के आलावा कुछ मांग ही नहीं सके, ऐसा लग रहा था जैसे भगवान् खुद इनके माध्यम से सब कुछ कर रहा हो। 

अब तक नरेंद्रनाथ रामकृष्ण परमहंस के शिष्य बन चुके थे।  धीरे - धीरे विवेकांनद जी रामकृष्ण परमहंस की निगरानी में अध्यात्म के विभिन्न आयामों को प्राप्त कर लिया।  देखते - देखते स्वामी विवेकानंद रामकृष्ण परमहंस के प्रिय शिष्य बन गए। रामकृष्ण परमहंस ने मानो इस संसार का सारा ज्ञान स्वमी विवेकनंद में उड़ेल दिया हो। 

कुछ समय बाद रामकृष्ण परमहंस की तबियत अच्छी नहीं रहने लगी और उनको गले का कैंसर हो गया। इस दौरान स्वामी विवेकानंद और बाकी शिष्यों ने बहुत सेवा की लेकिन एक दिन इससे लड़ते - लड़ते स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने अपने इस नश्वर शरीर को त्याग दिया। 

रामकृष्ण परमहंस की सारी जिम्मेदारियाँ अब स्वामी विवेकानंद पे आ गयी। स्वामी विवेकनंद के साथ कुल १५ और शिष्य थे जो उनके साथ ही थे और वही पे इन्होने रामकृष्ण मठ की  स्थापना की। स्वामी विवेकनंद पूरे भारत का भ्रमण करने लगे और लोगो को ज्ञान देने लगे। इस दौरान स्वामी विवेकानंद भारत के कई महान राजाओ से मिले लोग इनको चाहने लगे, स्वामी विवेकांनद समाज सेवा, जीव मात्र की सेवा को काफी बढ़ावा देते थे।  उनका कहना था मानव सेवा ही पूजा है। लोगो को भगवत गीता, वेद, उपनिषद के बारे में जागरूक करना ही एक मात्र उद्देश्य था। वो लोगो के पीड़ा को दूर करने की हर संभव कोशिश करते थे। 

एक बार की बात है जब वो वाराणसी के तट पर पहुंचे वहां वो अकेले थे और एक बंदरो के झुंड ने उनपे आक्रमण कर दिया और वो भागने लगे जितना तेज वो दौड़ते थे बन्दर उनसे ज्यादा तेज दौड़ कर उनके पीछा करने लगते, ये सब एक साधु बाब देख रहे थे साधू बाबा बोले भागो मत सामना करो नवयुवक , स्वामी विवेकानंद अब खड़े हो गए और एक डंडे से उनका सामना करने लगे ये देख कर सारे बन्दर भाग गए।  साधू बाबा बोले इसी तरह अपने जीवन में भी परेशानियों से नहीं भागना चाहिए, उनका सामना करना चाहिए । 

उन्हें शिकागो, अमेरिका में आयोजित होने वाले विश्व संसद (World Parliament of Religion) के बारे में पता चला, वह बैठक में भारत और अपने धर्म गुरु के ज्ञान का प्रतिनिधित्व करने के लिए बहुत उत्सुक थे , विभिन्न परेशानियाँ के बाद वो भारत से रवाना हो गए , कुछ महान राजाओं के मदद से उन्हें शिकागो जाने वाली समुद्री जहाज से जाने का मौका मिल गया। इस लम्बी यात्रा में वो कई लोगो से मिले, और स्वामी जी के विचारधाराओं से लोग बहुत प्रभावित हुए।

११ सितम्बर १८९३ को शिकागो, अमेरिका में विश्व धर्म संसद का शुभारंभ हुआ, इस दिन विवेकांनद जी भारत और हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व करते हुए एक संक्षिप्त भाषण दिया। वह शुरू में घबरा गए और माँ सरस्वती को प्रणाम किया और " मेरे  अमेरिका वासी भाईओं और बहनों " से शुरुआत की, इन शब्दों से विवेकानंद जी को सात हजार लोगो ने २ मिनट तक स्टैंडिंग अवेसन दिया और तालियों से पूरी सभा गूंज गयी। अपने संक्षिप्त भाषण में वो सनातन धर्म के शाश्त्रो में से कई दृष्टान्त दिए , वो शिव महिमा स्तोत्र से भी कुछ दृश्टान्त प्रस्तुत किये। वो लगभग ढाई साल रहे और न्यूयार्क में वेदांत सोसाइटी की स्थापना भी किये। उन्होंने वेदांत के दर्शन, आध्यात्मिकता के सिद्धांत का प्रचार प्रसार करने के लिए यूनाइटेड किंगडम की भी यात्रा की।   

पश्चिमी देशो में से विवेकानंद जी भारत में अपने काम काज को अपने मठ के भाईयो के माध्यम से जारी रखा। नियमित रूप से अपने अनुयायिओं और भाई भिक्षुओ से पत्र व्यहार के माध्यम से मार्ग दर्शन देते रहे। १६ दिसम्बर १८९६ को वो भारत के लिए रवाना हुए और अपने विदेशी अनुयायिओं के साथ विश्व के  बाकी देशों का भ्रमर करते हुए १८९७ में भारत पहुंचे। 

१८९७ में स्वामी विवेकानंद जी ने मानव सेवा के लिए रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। १८९९ में एक बार पुनः विदेश गए और फिर से कई देशो में भ्रमर किये,  लोगो को वेद दर्शन, गीता , हिन्दू शास्त्र, और अपने गुरु के द्वारा बताये गए ज्ञान से अवगत कराये। 

४ जुलाई १९०२ को स्वामी जी जल्दी उठे और तीन घंटे तक ध्यान किये। इसके बाद वो  विद्यार्थिओं को संस्कृत व्याकरण और वेद दर्शन सिखाया। बाद में अपने साथी भाईओं से एक वैदिक कॉलेज के बारे में चर्चा की। शाम को ७ बजे वो अपने कमरे में गए और ध्यान करते - करते महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा के तट पर उनकी चिता का अंतिम संस्कार किया गया। 

स्वामी विवेकानंद जी ने लोगो को हिन्दू धर्म का सार, अद्वैत वेदांत दर्शन के बारे में बताया। विवेकानंद जी ने लोगो को वेदांत का सारांश आधुनिक तरीके और सर्वभौमिक तरीके से समझाया।   

उठो, जागो और रुको मत जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये।

Swami Vivekanand Biography (स्वामी विवेकानंद - जीवनी) 


Read More (और अधिक पढ़े ):


Previous Post Next Post