Meerabai Biography (मीराबाई- जीवनी)
मीराबाई का जन्म एक राजपूत परिवार में कुड़की पाली नाम के जिले में हुआ था जो की राजस्थान में है। (१५०२-१५५६ ), वह एक भक्तिरस की एक महान कवियत्री और भगवान श्री कृष्ण की महान भक्त थी। मीराबाई ने बहुत सारे भक्तिमय कविताओं की रचना की है।
मीराबाई जोधपुर बसाने वाले राजा जोधा जी की पड़पौत्री थी। इनके दादाजी का नाम राव दादू जी था, और इनके पिता राजा रतन सिंह थे, जो की मेड़ता के शासक थे। मीराबाई बचपन से ही भक्तिमय थी।
मीराबाई पर अपने माँ और दादाजी का बहुत गहरा असर पड़ा। दोनों ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे, और हमेशा मीराबाई को धार्मिक कहानियाँ सुनाया करते थे।
एकबार की बात है बचपन में मीराबाई अपनी माता के साथ बालकनी में खड़ी थी, उसी समय बाहर एक बारात जा रही थी। मीराबाई ने पूछा की माँ वो कौन है कहा जा रहा है ? माँ बोली वो दूल्हा है, अपनी दुल्हन को लेने जा रहा है। इतने में मीराबाई बोल पड़ी की माँ मेरा दूल्हा कौन है ? बाल्य हठ की वजह से माँ ने दीवाल पे लगे भगवान श्री कृष्ण की प्रतिमा की तरफ देख के बोली की यही है तुम्हारा दूल्हा, यह बात मीराबाई के दिमाग में बैठ गया और यही से उन्होंने भगवान् श्री कृष्ण को अपना सब कुछ मान बैठी।
विवाह के योग्य होने पर मीराबाई की शादी राजा भोज से हुयी, जो की मेवाड़ के शिशोदिया शासक के राजा राणा सांगा के बड़े पुत्र थे। मीराबाई के लिए यह शादी तो एक सांसारिक दिखावा था , वो तो पहले ही श्री कृष्ण को अपना सबकुछ न्योंछावर कर दी थी। मीराबाई का यह भक्ति और कृष्ण के प्रति प्रेम राजा भोज को किंचित विचलित नहीं करता था , और मीराबाई की इस लगाव का वह बहुत इज़्ज़त करते थे। राजा भोज को छोड़ के बाकी परिवार वालो को मीरा से बहुत परेशनी थी।
दिन भर भजन कीर्तन करना, हमेशा भगवान् श्री कृष्ण के भक्ति में डूबे रहना और हमेशा इन्ही के बारे में बात करना, राजशाही परिवार के लिए जैसे कलंक सा बन गया। एक बार किसी धार्मिक जश्न में जब मांस बनाने से मीराबाई ने इंकार कर दिया, जो की उनके रीती - रिवाज के विरुद्ध था, तब राजशाही परिवार ने उनको दंड देने का निर्णय लिया। धार्मिक न्यायालय ने सजा के रूप में जहर का प्याला पीने को दिया। किंचित मात्र चिंता न करते हुए मीराबाई वह जहर का प्याला पी गयी और उन्हें कुछ भी नहीं हुआ।
मीराबाई के ससुराल में ही उनके सबसे कठिन समय बीता। समय - समय पर कई प्रताड़ना सहने पड़े। कुछ समय बाद ही राजा भोज की मुगलो के साथ युद्ध में मृत्यु हो गयी, अब मीराबाई का इस संसार में कोई नहीं बचा सिवाय कृष्ण के। प्रतड़ना का सिलसिला यहाँ तक पहुंच गया की मीराबाई को मारने के हर संभव कोशिश की गयी लेकिन सारी कोशिशे नाकाम रही। फूल की टोकरी में जहरीला सांप भेजना और बिस्तर में बिच्छू रखना सब के सब उलटे पड़ गए, और हद तो तब हुयी जब भगवान् श्री कृष्ण के मंदिर को भी बंद कर दिया गया। इस घटना से मीराबाई बहुत आहत हुयी और खाना पीना छोड़ कर चौदह दिनों तक मंदिर के दरवाजे पर बैठी रही। चौदहवे दिन जब मंदिर का दरवाजा अपने आप खुला तो मीरबाई मनो जीवित हो उठी और भगवान् श्री कृष्ण की छवि को अपने आँखों में बसा के हमेशा के लिए घर बार छोड़ दी।
मीराबाई ने उस समय के महान कवी तुलसीदास जी को पत्र लिखा था , उस पत्र में उन्होंने अपनी मनोव्यथा लिखी। इस पत्र के जवाब में तुलसीदास जी ने लिखा की आपका संसार तो श्री कृष्ण है, तो इस मिथ्या संसार के जाल में क्यों फंसना।
गृह त्याग के बाद मीराबाई, मथुरा और वृन्दावन में कई वर्षो तक समय बिताया और अब मीराबाई स्वछन्द, स्वतंत्र भक्ति के पथ पर आगे बढ़ती रही। वृन्दावन में मीराबाई को भगवान् श्री कृष्ण की एक अनन्य भक्त के रूप में प्रशिद्धि मिली। इनकी प्रशिद्धि इतनी बढ़ गयी थी की एक बार अकबर और तानसेन भी मीरा के सभा में भजन और कीर्तन सुनने के लिए आये। अकबर के द्वारा भेंट किये गए मोतियों के हार को मीरा बाई ने ठुकरा दिया, और जब अकबर बोले की यह आपके श्री कृष्ण के लिए है तब उसको ग्रहण की और कृष्ण के चरणों में न्योछावर कर दी।
अंत समय में मीराबाई द्वारका गयी और इनके मृत्यु को ले के कई मनोधारणा है, एक धरना तो यह भी है की मीराबाई कृष्ण के मंदिर में गयी और वही से गायब हो गयी और बोला जाता है की भगवान् श्री कृष्ण ने उनको सशरीर स्वीकार किया। कुछ धारणाये ये भी है की मीराबाई समुन्द्र में जलसमाधि ले ली।
इस तरह मीराबाई अपने कृष्ण के लिए अमर हो गयी। प्रेम और भक्ति की एक मिशाल बन गयी।
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