नाम : रामबोला (तुलसीदास)
जन्म : १५३२
गुरु : नरहरिदास
पिता : आत्मा राम दुबे
माता : हुलसी देवी
प्रसिद्ध रचना : रामचरितमानस
प्रसिद्ध रचना : रामचरितमानस
गोस्वामी तुलसीदास एक महान हिंदू कवि, संत, समाज सुधारक के साथ-साथ दार्शनिक भी थे। और उन्होंने कई लोकप्रिय पुस्तकों की रचना की थी । वह भगवान राम के प्रति समर्पण और महान महाकाव्य रामचरितमानस के लेखक थे। उन्हें हमेशा वाल्मीकि के पुनर्जन्म के रूप में सराहा गया।
जन्म और बचपन
तुलसीदास का जन्म श्रावण (जुलाई या अगस्त) के महीने में 7 वें दिन, चंद्र के उज्ज्वल आधे में हुआ था। उनका जन्म स्थान राजापुर (चित्रकूट) में यमुना नदी के किनारे हुआ। उनके माता-पिता का नाम हुलसी और आत्माराम दुबे था । काफी लोगो के अनुसार, तुलसीदास के जन्म वर्ष के बारे में विभिन्न मत हैं। उनमें से कई विक्रमी संवत के अनुसार कहते हैं कि उन्होंने 1554 में जन्म लिया था और अन्य कहते हैं कि यह 1532 था। वह 126 साल तक जीवित रहे।
तुलसीदास का जन्म 12 महीने बाद हुआ। जन्म के समय उनके सभी 32 दांत थे और पांच साल के लड़के की तरह उनका शरीर था। अपने जन्म के बाद वो रोये नहीं इसके बजाय उनके मुख से राम शब्द निकला। यही कारण है कि उनको रामबोला नाम से बुलाया जाता था। ऐसी बिलक्षण प्रतिभा को देख के समाज ने उनको अपसकुन बताया और तो और बढ़ावा तब और मिल गया जब जन्म के बाद चौथी रात में उनकी माता का निधन हो गया। जन्म के दो दिन बाद ही माता ने अपने इस बिलक्षण प्रतिभा के बालक को बचाने के लिए अपनी दासी चुनिया को दे दी (उनकी मां हुलसी की महिला नौकरानी), क्योंकि समाज के लोग बोले की ऐसे बच्चे को मार देना चाहिए। रामबोला को ले कर चुनिया अपने शहर हरिपुर में ले गई और उनकी देखभाल की। महज साढ़े पांच साल तक उसकी देखभाल करने के बाद उसकी भी मौत हो गई। उस घटना के बाद, रामबोला एक गरीब अनाथ के रूप में रहते थे, और घर-घर जाकर भिक्षा मांगते थे। यह माना जाता है कि देवी पार्वती ने रामबोला की देखभाल के लिए एक ब्राह्मण स्त्री का रूप धारण करके आती थी।
शिक्षा
कुछ दिन तक भीख मांग कर अपना जीवनयापन किये, फिर रामबोला की मुलाकात नरहरिदास जी से हुयी और रामबोला नरहरिदास की कुटिया में रहने लगे। यही पर रामबोला (तुलसीदास) को विर्क दीक्षा (वैरागी दीक्षा के रूप में जाना जाता है) दिया गया और नया नाम तुलसीदास मिला। उनका उपनयन अयोध्या में नरहरिदास द्वारा किया गया था जब वह मात्र 7 वर्ष के थे।
उन्होंने अपनी पहली शिक्षा अयोध्या में शुरू की। उन्होंने अपने महाकाव्य रामचरितमानस में उल्लेख किया है कि उनके गुरु ने उन्हें बार-बार रामायण सुनाई।
कुछ दिन बाद वह पवित्र शहर वाराणसी में आये जब वह सिर्फ 15-16 साल के था और इन्होने संस्कृत व्याकरण, हिन्दी साहित्य और दार्शनिक का ज्ञान प्राप्त किया। वाराणसी में ही वो सारे वेद पुराण का अध्ययन किया और हिन्दू साहित्य को समझा।
विवाह
अध्ययन पूरा होने के बाद तुलसीदास अपने घर गए वहाँ पे उनका कोई नहीं था। सभी लोगो का देहांत हो चुका था। तुलसीदास के ज्ञान से प्रभावित हो कर गावँ वालो ने इनको गाँव में ही रुकने के लिए जिद किया, तो तुलसीदास यही रुक गए और राम कथा, भजन इत्यादि करने लगे। उनके ज्ञान और स्वाभाव से प्रभावित हो कर 1583 में ज्येष्ठ माह के 13 वें दिन दीनबंधु पाठक ने अपनी बेटी रत्नावली से तुलसीदास की शादी करा दी। शादी के कुछ वर्षों बाद उन्हें तारक नाम का एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका बहुत जल्दी ही निधन हो गया। तुलसीदास अपनी पत्नी से बहुत प्यार करते थे और एक पल भी दूर नहीं रह सकते थे, एक बार उनकी पत्नी अपने पिता के घर चली गयी जब तुलसीदास हनुमान मंदिर गए थे। जब वह घर लौटे और अपनी पत्नी को नहीं देखा, तो वह अपनी पत्नी से मिलने के लिए चल दिए। उस समय बहुत घनघोर बारिश हो रही थी लंबी यमुना नदी में बाढ़ आ गयी थी लेकिन तुलसीदास एक अधजले पार्थिव शरीर के सहारे पूरी यमुना नदी पार कर के रत्नवली के घर पहुंचे। रत्नवली के कमरे में एक लटकते हुए सांप को पकड़ कर ऊपर चढ़ गए। तुलसीदास के इस पागलपन से रत्नावली बहुत परेशान हुयी और बोली की जितनी आसक्ति आप मेरे हाड़ - मांस के शरीर में रखे है इतनी आप भगवन राम में रखते तो आपको प्रभु श्री राम जरूर मिल जाते, फिर उन्होंने अपनी पत्नी को छोड़ दिया और पवित्र शहर प्रयाग चले गए जहाँ उन्होंने गृहस्थ जीवन को त्याग दिया और साधु बन गए।
प्रभु हनुमान जी से मुलाकात
रामकथा करना, भजन, कीर्तन यही सब अब तुलसीदास का परम लक्ष्य हो गया। प्रतिदिन नित्य क्रिया के बाद तुलसीदास जी जब वापस आते तो लोटे का बचा हुआ पानी वो एक वृक्ष पर डाल देते, एकदिन उस बृक्ष से एक प्रेत प्रकट हुआ और बोला आपके इस क्रिया से मै प्रसन्न हूँ , बोलिये आप को क्या चाहिए , तुलसीदास जी बोले की मुझे भगवान् श्री राम के दर्शन करना है , प्रेत बोला की मैं तो श्री राम के दर्शन कराने में असमर्थ हूँ , लेकिन आपके रामकथा में जो कोढ़ी प्रतिदिन आता है वह कोई और नहीं स्वयं राम भक्त हनुमान जी हैं , वो आपकी मदद कर सकते है।
तुलसीदास जी को यह ज्ञान तो था की उनकी कथा सुनने के लिए प्रतिदिन एक कोढ़ी सबसे पहले आता है और सबसे बाद में जाता था। अगले दिन जब कथा ख़तम होने के बाद में कोढ़ी बैठा था तो तुलसीदास जी उसके पैर पकड़ लिए, फिर हनुमान जी अपने प्रत्यक्ष रूप में दर्शन दिए और बताये की चित्रकूट में जाईये वहाँ पर आपको प्रभु श्री राम के दर्शन होंगे।
प्रभु श्री राम से मुलाकात
हनुमान जी से रूबरू होने के बाद चित्रकूट के घाट पे तुलसीदास आये और यहाँ पर भी इनका प्रतिदिन का काम वही पूजा - पाठ करना, राम कथा करना, भजन करना इत्यादि। एक दिन जब तुलसीदास जी सुबह के समय वापस आ रहे थे तो उनको दो सुन्दर बालक घोड़े पर आते हुए दिखाई दिए। तुलसीदास जी उनको पहचान नहीं पाए और जब हनुमान जी ने बताया की वही दोनों बालक प्रभु श्री राम और लक्ष्मण थे , तो उनको बहुत ग्लानि हुयी। इस पर हनुमान जी बोले की आप चिंता न करे प्रभु श्री राम फिर आएंगे आप से मिलने। अगले दिन सुबह जब तुलसीदास जी चन्दन घिस रहे थे तब दो बालक हाथो में धनुष लिए आये और बोले की बाबा मुझे भी चन्दन लगा दीजिये। इस बार तुलसीदास जी गलती न कर जाए तो हनुमान जी तोते के रूप में बोले"चित्रकूट के घाट पर भाई संतन की भीड़, तुलसीदास चन्दन घिसे तिलक देत रघुबीर"।
इतना कहते ही तुलसीदास जी समझ गए और प्रभु श्री राम को देखते ही उनकी शुद्धि-बुधि खो गयी। भगवान् ने अपने हाथ से चन्दन ले कर अपने और तुलसीदास के मस्तक पर लगाय और अंर्तध्यान हो गए।वाल्मीकि का अवतार
ऐसा माना जाता है कि तुलसीदास वाल्मीकि जी के पुर्नजन्म थे। हिंदू धर्मग्रंथ भव्योत्तार पुराण के अनुसार, भगवान शिव ने अपनी पत्नी पार्वती को बताया था कि कलयुग में वाल्मीकि कैसे अवतार लेंगे। सूत्रों के अनुसार, यह माना जाता है कि रामायण का गायन सुनने के लिए वाल्मीकि के पास हनुमान जाते थे।
साहित्यिक जीवन
इसके बाद हनुमान जी के आज्ञा से तुलसीदास अयोध्या जाने लगे। प्रयाग में कुछ दिन रहे यहाँ पर एक वट वृक्ष के निचे एक कथा सुने और यह कथा तुलसीदास जी अपने गुरु से सुना करते थे। यही पर इनको ऋषि भरद्वाज और यग्वालग्य मुनि के दर्शन हुए। यहाँ से वो काशी चले गए और एक ब्रह्मण परिवार के यहाँ रहने लगे। एकदिन इनके अंदर कवित्त शक्ति का स्फुरण हुआ और वे संस्कृत में पद्द रचना करने लगे परन्तु दिन में जितने वो पद्द रचते रात्रि में वो लुप्त हो जाते। यह घटना रोज घटती आठवें दिन तुलसीदास जी को स्वप्न में भगवान् शंकर और माँ पार्वती ने उन्हें आदेश दिया की तुम अपनी भाषा में काव्य रचना करो। तुलसीदास जी की नींद टूट गयी और वे उठ कर बैठ गए उसी समय भगवान् शिव और माँ पार्वती उनके सामने प्रकट हुए और बोले की तुम अयोध्या में जा कर अपनी भाषा में पद्द की रचना करो , मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी रचना सामवेद की तरह फलवती होगी। इतना कहकर भोलेशंकर अंतर्ध्यान हो गये।
तुलसीदास जी उनकी आज्ञा से अयोध्या आ गये। रामनवमी के दिन सुबह तुलसीदास जी ने रामचरित मानस की रचना प्रारम्भ की दो वर्ष सात महीने और छब्बीस दिन में रामचरित मानस की रचना सम्पूर्ण हो गयी। इसके कुछ दिन बाद भगवान् की आज्ञा से तुलसीदास जी काशी चले आये, यहाँ उन्होंने भगवान काशीविश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को रामचरित मानस सुना कर पुस्तक श्री विश्वनाथ मंदिर में रख दी, सुबह उस पुस्तक पर सत्यम शिवम् सुन्दर अंकित हुआ मिला।
रामचरित मानस की रचना से तुलसीदास जी को काफी प्रसिद्धि मिली। इस पर कुछ ब्राह्मण समाज उनसे घृणा करने लगे और उनको बदनाम करने तथा उनकी रचना को झूठी बताने लगे। तुलसीदास जी की बहुत निन्दा भी करने लगे। रामचरित मानस को नष्ट करने का कई असफल प्रयास करने लगे। एक दिन दो चोर को पुस्तक चुराने के लिए भेजे, चोरों ने देखा की दो वीर धनुष ले के कुटी की रक्षा कर रहे है। उनको देखते ही दोनों चोरो की बुद्धि फिर गयी और वो भगवान के चरणों में गिर गये। उसके बाद दोनों चोर चोरी छोड़ कर भगवान् का भजन करने लगे। उसके बाद जब तुलसीदास जी को यह पता चला की उनकी वजह से भगवान् को कष्ट हुआ तो उन्होंने कुटी का सारा सामान दान में दे दिया और वह पुस्तक उन ब्राह्मणो को सौंप दी।
इसके बाद तुलसीदास जी ने उसी के आधार पर और प्रतिलिपियाँ लिखी और रामचरितमानस का प्रचार दिनों दिन बढ़ने लगा। इस पर ब्राहम्णो को और कुछ न सूझी तो उन्होंने उस समय के ज्ञानी मधुसूदन सरस्वती जी को उस पुस्तक को देखने के लिए आग्रह की। श्री मधुसूदन सरस्वती जी ने उस पुस्तक को देखा और बहुत प्रसन्नता की। ब्राह्मणो को इस पर भी संतोष नहीं हुआ तो उन्हों उस पुस्तक की एक और परीक्षा ली, उन्होंने काशीविश्वनाथ मंदिर में सबसे ऊपर वेद उसके बाद पुराण उसके बाद उपनिषद और सबसे नीचे रामचरितमानस रखी। सुबह जब मंदिर खुला तो पाया की रामचरितमानस सबसे ऊपर है। अब सारे ब्राह्मण ने हार कर तुलसीदास जी से क्षमा मांगी और उनके साथ भगवान के भजन करने लगे।
कुछ दिन बाद भगवान की आज्ञा से तुलसीदास जी ने विनयपत्रिका की रचना की
तुलसीदास जी उनकी आज्ञा से अयोध्या आ गये। रामनवमी के दिन सुबह तुलसीदास जी ने रामचरित मानस की रचना प्रारम्भ की दो वर्ष सात महीने और छब्बीस दिन में रामचरित मानस की रचना सम्पूर्ण हो गयी। इसके कुछ दिन बाद भगवान् की आज्ञा से तुलसीदास जी काशी चले आये, यहाँ उन्होंने भगवान काशीविश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को रामचरित मानस सुना कर पुस्तक श्री विश्वनाथ मंदिर में रख दी, सुबह उस पुस्तक पर सत्यम शिवम् सुन्दर अंकित हुआ मिला।
रामचरित मानस की रचना से तुलसीदास जी को काफी प्रसिद्धि मिली। इस पर कुछ ब्राह्मण समाज उनसे घृणा करने लगे और उनको बदनाम करने तथा उनकी रचना को झूठी बताने लगे। तुलसीदास जी की बहुत निन्दा भी करने लगे। रामचरित मानस को नष्ट करने का कई असफल प्रयास करने लगे। एक दिन दो चोर को पुस्तक चुराने के लिए भेजे, चोरों ने देखा की दो वीर धनुष ले के कुटी की रक्षा कर रहे है। उनको देखते ही दोनों चोरो की बुद्धि फिर गयी और वो भगवान के चरणों में गिर गये। उसके बाद दोनों चोर चोरी छोड़ कर भगवान् का भजन करने लगे। उसके बाद जब तुलसीदास जी को यह पता चला की उनकी वजह से भगवान् को कष्ट हुआ तो उन्होंने कुटी का सारा सामान दान में दे दिया और वह पुस्तक उन ब्राह्मणो को सौंप दी।
इसके बाद तुलसीदास जी ने उसी के आधार पर और प्रतिलिपियाँ लिखी और रामचरितमानस का प्रचार दिनों दिन बढ़ने लगा। इस पर ब्राहम्णो को और कुछ न सूझी तो उन्होंने उस समय के ज्ञानी मधुसूदन सरस्वती जी को उस पुस्तक को देखने के लिए आग्रह की। श्री मधुसूदन सरस्वती जी ने उस पुस्तक को देखा और बहुत प्रसन्नता की। ब्राह्मणो को इस पर भी संतोष नहीं हुआ तो उन्हों उस पुस्तक की एक और परीक्षा ली, उन्होंने काशीविश्वनाथ मंदिर में सबसे ऊपर वेद उसके बाद पुराण उसके बाद उपनिषद और सबसे नीचे रामचरितमानस रखी। सुबह जब मंदिर खुला तो पाया की रामचरितमानस सबसे ऊपर है। अब सारे ब्राह्मण ने हार कर तुलसीदास जी से क्षमा मांगी और उनके साथ भगवान के भजन करने लगे।
कुछ दिन बाद भगवान की आज्ञा से तुलसीदास जी ने विनयपत्रिका की रचना की
१६८० में श्रावण (जुलाई या अगस्त) के महीने में असि घाट पर गंगे नदी के तट पर उनकी मृत्यु हो गई।
अन्य प्रमुख रचना
दोहावली: इसमें ब्रज और अवधी में कम से कम 573 विविध दोहा और सोरठा का संग्रह है। इसमें से लगभग 85 दोहा रामचरितमानस में भी शामिल हैं।
कवितावली: इसमें ब्रज में कवित्तों का संग्रह है। महाकाव्य, रामचरितमानस की तरह, इसमें भी सात पुस्तकें और कई कड़ियाँ हैं।
गीतावली: इसमें 328 ब्रज गीतों का संग्रह सात पुस्तकों में विभाजित है और सभी हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत प्रकार के हैं।
कृष्ण गीतावली या कृष्णावली: इसमें विशेष रूप से कृष्ण के लिए ६१ ब्रज गीतों का संग्रह है। 61 में से, 32 गीत कृष्ण के बचपन और रास लीला को समर्पित हैं।
विनय पत्रिका: इसमें 279 ब्रज का संग्रह है
बरवई रामायण: इसमें 69 छंद यह सात कांडों में विभाजित हैं।
पार्वती मंगल: इसमें 164 पारियों का संग्रह है जो माता पार्वती और भगवान शिव के अवधी में विवाह का वर्णन करता है।
जानकी मंगल: इसमें 216 श्लोकों का संग्रह है जो अवधी में सीता और राम के विवाह का वर्णन करते हैं।
रामलला नाहछु: इसमें अवधी में बालक राम के नाहचू अनुष्ठान (विवाह के पहले पैर के नाखून काटना) का वर्णन किया गया है।रामाज्ञा प्रशन: इसने अवधी में राम की इच्छा का वर्णन किया, जिसमें सात कांड और 343 दोहे शामिल हैं।
वैराग्य संदीपिनी: इसमें बृज में साकार और वैराग्य का वर्णन करते हुए 60 छंद शामिल हैं।
हनुमान चालीसा: इसमें ४० श्लोक अवधी में हनुमान को समर्पित, ४० चौपाई और २ दोहे हैं और यह हनुमान की प्रार्थना है।
संकटमोचन हनुमानाष्टक: इसमें अवधी में हनुमान के लिए 8 छंद शामिल हैं।