कर्म
संस्कृत भाषा में ‘कर्म’ का अर्थ है ‘कार्य’ या ‘क्रिया’ वे सारी क्रियाएँ जो न की सिर्फ हम शरीर द्वारा करते हैं बल्कि अपने मन और वाणी द्वारा भी करते हैं, उसे कर्म कहते हैं। दैनिक कार्य भी कर्म कहलाता है, जैसे अपने नित्य क्रिया के कर्म करना, काम पे जाना, इत्यादि। हम जो सोचते हैं, जो बोलते है, और जो करते है, सब कर्म होते है।
कर्म का सिद्धांत या कर्म का नियम
कर्म का नियम, क्रिया और प्रतिक्रिया के नियम पे काम करती है। कारण और प्रभाव के नियम पे यह चलता है। आप जो करते है वो आप का कारण होता है और आप को जो मिलता है वो प्रभाव या परिणाम होता है। यह एक सार्वभौमिक नियम है, जैसे गुरुत्वाकर्षण का नियम है वैसे ही।
इस नियम के अनुसार यदि आप अच्छा करते है तो आप को अच्छा मिलेगा और यदि आप बुरा करते है तो आप को बुरा मिलेगा।
जिस तरह भौतिक विज्ञानं में हर कारण का एक प्रभाव या परिणाम होता है, उसी तरह कुदरत के कर्म के नियम में भी हर कर्म का एक प्रभाव या परिणाम होता है। जिस तरह आप के द्वारा दीवाल पे फेंकी गयी गेंद आप के पास ही आती है उसी तरह कर्म का नियम है की आप के द्वारा किये गए कर्म आप को ही आते है चाहे ये कर्म मन के द्वारा किया गया हो या वाणी के द्वारा किया गया हो या शरीर के द्वारा किया गया हो।
"जैसा तुम करोगे, वैसा तुम भरोगे"
उदाहरण के लिए, अगर आज हम अपने माता-पिता का सम्मान नहीं करते हैं, तो ये 'कर्म' तब हमारे पास वापस आएगा जब हमारे बच्चे हमें बेइज्ज़त करेंगे। यही है 'कर्म' का नियम और यह 'कर्म' का सबसे महत्वपूर्ण और सच्चा नियम है, अपने जीवन के सारे फैसले लेते समय हमें कर्म के नियम को जरूर याद रखना चाहिए।
"कर्म का फल" एक प्रेरक कहानी
एक संत अत्यंत सरल स्वभाव के थे। वे जब भिक्षा मांगते थे, तो कहते थे परमात्मा के नाम पर दे दो। जो जैसा करेगा,वैसा ही भरेगा। उस नगर में एक कुलटा व्यभिचारिणी स्त्री रहती थी। जब वह स्त्री संत के वचन सुनती है की जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा तो वह सोचती है कि यह संत मुझे तो नहीं सुनाता है? उसके मन में पाप आ गया। उसने सोचा कि कैसे इस संत को मार दूँ? स्त्री ने दो लड्डू खूब घी मेवा आदि डालकर बनाए और उन में जहर मिला दिया। जब वह संत उस स्त्री के दरवाजे से गुजरा तो उसने कहा कि जो जैसा करेगा, वैसा ही भरेगा। स्त्री सुनकर बाहर आई, उसने संत से कहा कि यह दो लड्डू तुम्हारे लिए ही बनाए हैं। बहुत अच्छे हैं। इन्हें अभी खा लेना। ऐसा कहकर संत को दे दिए। संत तो सरल स्वभाव का था, उसने लड्डू ले लिए और आगे बढ़ गया। आज उसे भिक्षा कुछ ज्यादा ही मिल गई थी। वहां अपने कुटी पर आया। उसने भिक्षा में मिले अन्य पदार्थ खा लिए, लड्डू वैसे ही रहे। संत ने सोचा कि इतने अच्छे लड्डू हैं, इन्हें कल खा लूंगा।
उसी रात को उस स्त्री के पति और पुत्र कहीं बाहर से आ रहे थे। वे बहुत थक गए थे और भूख भी लग रही थी। दोनों ने सोचा कि संत की कुटी पर कुछ विश्राम कर लेते हैं। जब वह संत के पास पहुंचे तो संत ने उन्हें बैठाया। पूत्र ने कहा कि बाबा! भूख लगी है, कुछ खाने के लिए हो तो दीजिए। संत ने वे दोनों लड्डू एक पिता को और एक पुत्र को खाने के लिए दे दिए। लड्डू खाने के बाद दोनों का प्राणान्त हो गया। वे दोनो मर गये। जब वह स्त्री संत के पास आई तो सिर पटक कर रोने लगी कि यह लड्डू तो मैंने ही संत को मारने के लिए बनाए थे, यह क्या हो गया!
कहानी की सीख
जो गड्ढा तुम दूसरों के लिए खोदते हो उसमें स्वयं भी गिर सकते हो। धर्म का मूल संदेश यही है कि जैसा करोगे,वैसा भरोगे।दूसरों के लिए कांटे बिछाओगे तो स्वयं तुम्हें ही उन पर चलना हो